Tuesday, December 31, 2019

सोचता हूँ कि नए साल पर मैं क्या लिखूं

सोचता हूँ कि नए साल पर मैं क्या लिखूं

इन्क़िलाब की नयी दास्तान लिखूं
या ज़िन्दगी की नयी शाम लिखूं
सुबहे नौ की उम्मीद लिखूं
या शाम के पुराने धंधलके लिखूं

सोचता हूँ कि नए साल पर मैं क्या लिखूं

तख़्त-ए- शाही पर बैठे बूढ़े की नफरत लिखूं
या पुलिस की गोली खाते युवा की मोहब्बत लिखूं
अहंकार में डूबी हुकूमत लिखूं 
या रोड पर उतरी जनता लिखूं

सोचता हूँ कि नए साल पर मैं क्या लिखूं

सर्द रातों में ठण्ड से लड़ती शाहीनें लिखूं
या ठण्ड से अकड़ते बच्चों के चेहरे लिखूं
कानून की काली किताब लिखूं
या संविधान पर लगते धब्बे लिखूं

सोचता हूँ कि नए साल पर मैं क्या लिखूं

अपने दिल के बेचैनी लिखूं
या आँखों के छलकते अश्क लिखूं
अपने ज़हन की उलझन लिखूं
या लोगों पे लगे बंधन लिखूं

सोचता हूँ की नए साल पर मैं क्या लिखूं

युवाओं के अज़ाइम लिखूं
या युवतियों के हौसले लिखूं
झूठ की छंटती स्याही लिखूं
यार ज़ुल्म के ढलते बादल लिखूं

सोचता हूँ की नए साल पर मैं क्या लिखूं







Saturday, December 28, 2019

सूफी नाना



सूफी नाना हमारे खानदान के सबसे प्रसिद्ध आलिमे-दीन (धार्मिक गुरु) और इलाके के विख्यात व्यक्तियों में से एक थे। आप हमारे घराने के उन चन्द ममतामय बज़ुर्गों मे से थे जिनकी दुआएं और मुहब्बतें बचपन से हमारेे साथ रहीं। आप हमारे सगे नाना के मामूज़ाद भाई थे, और इसके साथ-साथ हमारे फूॅफू नाना यानी हमारी मां के फूपा के भाई भी थे। आप दानों भाइयों के घर एक दूसरे के साथ बिलकुल मिले हुए थे और उनके बीच स्थित दीवार में रसोई के पास एक छोटी सी दरवाजे सरीखी खिड़की लगी हुई थी, जो दोनों घरों के बीच सम्पर्क बनाने का काम करती थी।
बचपन में मां के साथ जब भी हम फूफू-नानी के यहां जाते तो हमारा पहला हमला इसी खिड़की पर होता था, क्योंकि इसको खोलने के बाद दोनों घरों के आंगन हमारी पहुंच में आ जाते थे और हमें खेलने के लिए एक विशाल मैदान मिल जाता था। इस खिड़की पर हमले की दूसरी वजह यह थी कि इसके खोलते ही हमारे स्वागत और सत्कार में दोगना इज़ाफा हो जाता था, क्योंकि दूसरी ओर सूफी नाना और नानी, अर्थात आपकी श्रीमती ढेरसारी दुआओं और प्रेम के साथ ढेरसारे शकर के बताशे, संतरे वाली टाॅफियां और खजूर खाने को देती थीं। खजूर की बात निकल आई तो एक बात और बताता चलूं कि उच्चकोटि की खजूरें पूरे कुनबे में सिर्फ आप ही के यहां खाने को मिलती थीं।
सूफी नाना के यहां हमारी ईदी बचपन से बंधी हुई थी, जो शुरू में दो रुपये थी और फिर हमारी आयु, समय, जमाने और मंहगाई के साथ-साथ इस में इज़ाफा होता चला गया और कभी भूले से भी ऐसा न हुआ कि हमें आपके यहां ईदी न मिली हो। हालांकि ईदी मिलने का यह मुबारक सिलसिला अब तो माता-पिता से भी लगभग खत्म हो चुका है तो दूसरे संबंधी व नातेदारों की बात ही क्या है? अभी इसी ईद में आपने मुझे और मेरे छोटे भाई को 50 रुपये बतौर ईदी इनायत किये। इस साल जब हम ईद के अगले दिन मामूल के मुताबिक ईद मिलने आपके यहां गये तो मालूम हुआ कि आप हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। ढेर सारी मुहब्बतें और दुआएं प्रदान करन के बाद नानी ने हमारी जेब में ईदी रखते हुए कहा कि नाना तुम्हीं लोगों का इन्तजार कर रहे थे, किसी आवश्यक काम से कस्बे जाना था उन्हें मगर सिर्फ इसलिए नहीं गये कि हमारे नाती हर साल की तरह आज भी आते होंगे, अब मैं उनसे मिलने के बाद ही जाऊंगा। सूफी नाना उन चंद लोगों में से थे जिन्होंने ईद मिलने की पुरानी परम्परा को आज भी गले से लगा रखा था, वरना अब तो अक्सर दरवाजे़ खाली या बंद मिलते हैं। उस दिन सूफी नाना से हाथ मिला कर जब हम बाहर निकले तो हमें ज़रा भी अहसास नहीं हुआ था कि आप बस चंद महीनों के महमान हैं।
मैंने जब से होश संभाला, ईदगाह में हमेशा आपको इमामत करते (नमाज़ पढाते) देखा। इमामत का यह वर्दान आपको, आपकी परहेजगारी, पवित्रता, लगन शिष्टाचार और प्रसिद्धि के कारण 70 की दहाई के अंत में प्राप्त हुआ था। इमामत की इस सेवा को आपने जीवन के अंत तक अंजाम दिया। ईद की नमाज़ के बाद आप से गले मिलने वालों का तांता सा लग जाता था और लोग बड़े उत्साह से आपसे गले मिलने के लिए प्रतिस्पर्धा करने लगे थे। हम ठहरे सुविधा पसंद, कहां इतनी मेहनत करते, इसलिए दो-चार लोगों से गले मिलकर चुपके से चाट की दुकान की तरफ निकल जाते, दिल को यह तसल्ली देते हुए कि कल तो आपके यहां जाना ही है, वहीं घर पर मिल लेंगे। हालांकि कई बार ऐसा होता कि ईदगाह के मेले से फारिग होने के बाद जब हम कब्रिस्तान में दाख़िल होते तो आप वहां से बाहर आते या अन्दर जाते हुए मिल जाते और बड़ी शफ़क़त से रास्ते में ही हमें गले लगा लेते। और इस प्रकार बगैर किसी महनत के उनसे मिलने का सौभाग्य हमें मिल जाता, जिसके लिए लोग ईद की नमाज के बाद मशक्कत करते नजर आते थे।
मैंने अपनी पुस्तक The Khans of Satanpurwa लिखते समय सूफी नाना का एक संक्षिप्त सा साक्षात्कार लिया था जिस में आपके जीवन से संबंधित बुनियादी जानकारियां एकत्र की थीं, उचित होगा कि उन बुनियादी जानकारियों का यहां उल्लेख कर दिया जाये ताकि यह लेख न केवल मेरे संस्मरण के तौर पर जाना जाये बल्कि सूफी नाना के ताल्लुक से दस्तावेजी हैसियत का माना जाये।
सूफी नाना का पूरा नाम मौलाना सूफी जा़मिन अली खां था और अपने इलाके में सूफी साहब के नाम से प्रसिद्ध थे। 2 फरवरी सन् 1940 में रायबरेली में स्थित सातनपुरवा के एक छोटे से गांव गढ़ी दिलावर में पैदा हुए। आपने आरम्भिक शिक्षा और उच्च शिक्षा सातनपुरवा के सरकारी स्कूल में प्राप्त की, जो सन् 1958 में पूर्ण हुई। इसके बाद आपने कुछ वर्ष गांव में निवास किया और फिर सन् 1965 में सुल्तानपुर स्थित सिन्दूरवा के निकट एक छोटे से गांव ‘छोटई का पुर्वा’ स्थानान्तरित हो गये, जहां आप जीविकोपार्जन के लिए गांव के बच्चों को पढ़ाने लगे और साथ ही अपनी शिक्षा भी जारी रखी। आप रोजाना सुबह बच्चों को पढ़ाने के बाद जगदीशपुर के मदरसे ‘सिराजुल उलूम लतीफिया’ में चले जाते, जहां उर्दू, फारसी और अरबी की शिक्षा ग्रहण करते।
शिक्षा व दीक्षा का यह सिलसिला लगभग दस साल अर्थात सन् 1975 तक चलता रहा। इसके पश्चात आपने फैज़ाबाद के एक कस्बे टांडा स्थित ‘दारुल उलूम मज़हरे हक़’ में प्रवेश ले लिया और ‘आलमियत व किरअत’ की शिक्षा हासिल करने के बाद सन् 1977 में वहां से फारिग़ हुए। दारुल उलूम मज़हरे हक़ से फारिग होने के बाद जगदीशपुर के मदरसे सिराजुल उलूम लतीफिया में बतौर उस्ताद आपकी नियुक्ति हो गई, जिसके बाद आपकी जिन्दगी को परिपक्वता मिली। और आप शिक्षा-दीक्षा में व्यस्त हो गये। सन् 1999 में अल्लाह तआला ने हज करने का सोभागय भी प्रदारन किया।
अपनी शैक्षिक व्यस्तता के बावजूद जनता से सम्पर्क व संबंध का जो सिलसिला आपने छोटई का पुर्वा में आरम्भ किया था उसको न केवल बरकरार रखा वरन आगे भी बढ़ाया और अपने दिलकश व प्रेणादायी भाषणों से शीघ्र ही अवाम मेें प्रसिद्ध हुए और न केवल आस-पास के इलाके बल्कि बिहार, उड़ीसा, गुजरात, छत्तीसगढ़ और मुम्बई से आपको भाषणों के लिए बुलावे आने लगे। सूफी नाना कमाल के वक्ता थे श्रोताओं को किस प्रकार सम्मोहित करना है, आपको खूब आता था। एक खास बात जो इलाके के दूसरे वक्ताओं से आपको श्रेष्ठ करती थी वह थी अपने वक्तव्यों में इलाकाई भाषा अर्थात अवधी का सुन्दर व सन्तुलित, धारा प्रवाह ऐसा प्रयोग कि हृदय को स्पर्श कर जाये और आम लोगों को आपकी बात समझ में आ जाये।
मदरसे में शिक्षा-दीक्षा की व्यस्तता, जनता में आपके वक्तव्यों की स्वीकार्यता और सफर की बढ़ती तादाद के बावजूद आपने अपने गांव की आवश्यकताओं को अनदेखा नहीं किया। अपने गांव में बच्चों को बुनियादी धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता को शिद्दत से महसूस करते हुए आपने कुछ दूसरे शिष्ट बुजुर्गाें के सहयोग से जिन में मौ0 जाफर, हाजी मौ0 यूसुफ, मुहम्मद अली मुंशी, कल्लन खां और मौलवी अब्दुलबारी वगैरा विशेष तौर से उल्लेखनीय हैं, गांव में लगभग 18 बिसवा ज़मीन हासिल की और इस पर ‘अशरफुल उलूम अहमदिया’ मदरसे की स्थापना की और एकमत से इसके अध्यक्ष नियुक्त हुए। और अभी पिछली दहाई तक इस पद पर नियुक्त रहे, मगर सन् 2007 में अवकाश प्राप्ति के बाद जब आपका स्वास्थ्य जवाब देने लगा तो सन् 2009 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
अपने खित्ते मे आपने जो दूसरा महत्वपूर्ण कार्य किया वह था ज़मींदाराना मिज़ाज की वजह से स्थापित होने वाले अवैध संबंधों को सही रुख देना। आप इस प्रकार के संबंध रखने वाले विभिन्न लोगों से मिले जिन में कई गण्मान्य लोग भी थे, उन्हें ऐसे रिश्तों को दाम्पत्य में परिवर्तित करने पर आमादा किया, जिस से समाज में अनैतिक संबधों पर कुछ लगाम लगी।
अभी दो दिन पूर्व यानी सोमवार के दिन दिनांक 16 सितम्बर 2019 को 80 वर्ष की आयु में आप इस नश्वर संसार से प्रस्थान कर गये और अपने सच्चे मालिक से जा मिले, अल्लाह तआला आपको स्वर्ग में उच्च स्थान प्रदान करे और साथ ही साथ आपके परिजनों को सब्र व शान्ति प्रदान करे। आमीन।

Sunday, August 25, 2019

جگاڑ

جگاڑ

از محسن عتیق خان 



اب تک وہ دسیوں انٹرویو دے چکا تھا اور کئی مہینوں سے مسلسل انٹرویوز دیتے دیتے وہ تھک چکا تھا لیکن کامیابی کا کہیں دور دور تک پتا نا تھا- ایک طرف اسے گھر والوں کی غربت اور بدحالی کی فکر ستا رہی تھی تو دوسری طرف مکان مالک کو دینے کے لئے کرایہ کے پیسے میسّر نہیں تھے- کئی دنوں سے تو وہ صرف ایک وقت کے کھانے اور پانی پر گزارہ کر رہا تھا اور اسے اب اپنے اندر کافی کمزوری کا احساس ہونے لگا تھا-
ایسا نہیں کہ وہ تمام مطلوبات (ریکوائرمنٹ) پوری نہیں کر رہا تھا بلکہ بات یہ تھی کی اسے کسی کی سفارش حاصل نہ تھی اور دوسری چیز جو ایسے میں کام آتی ہے یعنی رشوت اسکے لئے بھی اسکے پاس پیسے نہیں تھے، وہ تو بس اپنی صلاحیت، قابلیّت اور اسناد کے بھروسے پر انٹرویوز دے رہا تھا- ایک کمپنی میں وہ انٹرویو دینے کیلئے  کئی دنوں سے مسلسل دوڑ رہا تھا لیکن انٹرویوز دینے والوں کی لمبی لمبی قطاروں کی وجہ سے اسے موقع نہیں مل پا رہا تھا، ایک دن تو اس سے آگے صرف چند نوجوان ہی باقی رہ گئے تھے جب انٹرویو لینے والے اٹھ کر چل دئے-
آج وہ صبح ہی سے بھوکا پیاسا لائن میں لگا ہوا تھا اور اپنا نمبر آنے کا انتظار کر رہا تھا، اس وقت آفتاب کی تمازت میں کافی حد تک کمی آچکی تھی اور شام امیدوں کے ساتھ دھیرے دھیرے چلی آرہی تھی، اسکے آگے اب صرف دو تین امیدوار ہی باقی رہ گئے تھے کی تبھی ایک لحیم شحیم شخص سبک رفتاری سے آیا  اور آگے بڑھتا چلا گیا اور ایک لفافہ چپراسی کے ہاتھوں اندر بھیج کر وہیں کرسی پر بیٹھ کر اندر سے جواب کے آنے کا انتظار کرنے لگا- تھوڑی دیر میں اندر سے تقریبا اسی قد کاٹھی کا ایک دوسرا شخص نمودار ہوا اور اس نو وارد کو اپنے ساتھ لیکر اندر چلا گیا- تقریبا آدھے گھنٹے کی بعد جب وہ نووارد شخص باہر نکلا تو ایک امیدوار نے بڑے تجسّس کے ساتھ اس سے دریافت کیا "سر جی کیا آپ اپنا انٹرویو دے چکے ہیں؟" تو ان صاحب نے مسکراتے ہوئے جواب دیا "ہاں، ہو گیا- مگر توسی کیوں پونچھ رہے ہو؟" اسنے کہا "سر ہم لوگ صبح سے لائن میں لگے کھڑے ہیں لیکن ہمارا نہیں ہوا، اور آپ ابھی ابھی تشریف لاے اور اور آپ کا ہو گیا!" اس شخص نے شہادت کی انگلی سے اپنی طرف اشارہ کرتے ہوئے کہا "میرا جگاڑ تھا نا، توسی جگاڑ لاؤ جگاڑ-" اور یہ کہتے ہوئے وہ شخص آگے نکل گیا-
ان دونوں کی باتیں وہ بڑے غور سے سن رہا تھا اور اور اسکے دل پر اسکا ایک خاص اثر ہو رہا تھا- وہاں بھی اسے ناکامی کا منہ دیکھنا پڑا، اسکے بعد اسنے کئی اور کمپنیوں میں انٹرویوز دئے لیکن وہی ناکامی ہاتھ لگی- ایک دن ایک کمپنی میں دن بھر لائن میں کھڑے رہنے کے بعد جب وہ انٹرویو دیکر اور لوگوں سے کھچا کھچ بھری کئی بسوں کو چینج کرکے دو گھنٹے کے سفر کے بعد اپنے کمرے پر واپس آگیا تو بذریعہ فون اسے مطلع کیا گیا کی اسکا سلیکشن ہو گیا ہے اور اس سے کہا گیا کہ کل سے آپ کو ڈیوٹی جوائن کرنی ہے مگر آفس میں آج ہی شام کو ٩ بجے تک آپ کو آنا ہے- اس نے جواب میں کہا "سر میں بہت تھک چکا ہوں، میں کل صبح ہر حال میں وقت سے پہلے ہی پہونچ جاؤنگا -" ادھر سے "او کے" کہا گیا اور اسکے بعد سلسلہ منقطع ہو گیا- اس وقت وہ ایک دم تھک کر چور ہو چکا تھا اسلئے جانے کی ہمّت نا جٹا سکا-
اگلے دن جب وہ صبح کمپنی کے آفس پہونچا تو ریسپشن پر بیٹھی خاتون سے معلوم ہوا کی اسکا سلیکتیں رد کیا جا چکا ہے، اور سبب پوچھنے پر بتایا گیا کہ اسے کل شام کو بلایا گیا تھا مگر وہ آیا نہیں اسلئے-  اسنے خاتون سے کہا "میم! مگر ڈیوٹی تو آج سے جوائن کرنی تھی اور میں وقت سے پہلے حاضر ہوں" تو خاتون نے بڑے پروفیشنل انداز میں جواب دیتے ہوئے کہا "دیکھئے سر کسی دوسرے کو لیا جا چکا اور اب کوئی جگہ خالی نہیں" اور یہ کہ کر وہ دوسرے کی جانب متوجہ ہو گی-
ناکامی کے احساس نے اسکی تھکن میں اور اضافہ کر دیا تھا اور وہ مایوس کن حالت میں آفس کے باہر پڑی ایک کرسی پر بیٹھ گیا- آفس کے بوڑھے چپراسی کی تجربہ کار نگاہیں اسکی حالت زار کا اندازہ لگا چکی تھیں اور اسکی مایوس کو دیکھ کر وہ بولے بغیر نہ رہ سکا، وہ تھوڑا سا اس سے قریب ہوا اور سرگوشی کے سے انداز میں کہا "بیٹا یہاں صلاحیّت سے نہیں بلکہ پیسے اور جگاڑ سے ہوتا ہے، کل تم نے انہیں پیسے نہیں دے تھے کیا؟" اسنے جواب میں کہا "بابا اگر پیسے ہوتے تو نوکری کی ضرورت ہی کیا تھی، اور دہلی جیسے بڑے اجنبی شہر میں جگاڑ کہاں سے لاؤں میں-" اتنا کہ کر وہ کرسی سے اٹھ کر چل دیا-
وہ اپنے کمرے پر واپس آیا تو یاس وہ نہ امیدی اسکے ذهن پر اپنا قبضہ جما چکیں تھیں، اسکے دماغ میں صرف لفظ جگاڑ کی گونج تھی اور ایسا لگ رہا تھا کہ یہ لفظ اسکا دشمن ہے، اور پھر اس پر ایک ہیجانی سے کیفیت طاری ہو گی اور وہ جگاڑ جگاڑ چللانے لگا، ایسا لگ رہا تھا جیسے مسلسل ملنے والی ناکامیوں نے اسکا ذہی توازن بگاڑ دیا ہو-

نوٹ: یہ مختصر افسانہ راقم الحروف کے چند ابتدائی افسانوں میں سے ایک ہے اور سنہ ٢٠٠٤ میں ایک حقیقی واقعہ سے متاثر  ہوکر لکھا گیا تھا- 

Monday, March 25, 2019

"مصادر الأدب العربی" کا تجزیاتی مطالعہ

استاد محترم جناب واضح رشید ندوی کی کتاب "مصادر الأدب العربی" کا تجزیاتی مطالعہ ناچیز کے قلم سے.




Sunday, March 10, 2019

بابری مسجد کے مسئلے کو حل کرنے کا درمیانی راستہ

ڈاکٹر محسن عتیق خان




آزاد ہندوستان کی تاریخ میں سب سے طویل مدت تک چلنے والابابری مسجد تنازعہ کا مقدمہ آج بھی اپنے انجام کو پہونچتا نظر نہیں آتا اور آخر کار ملک کی عدالت عظمی نے بھی اسے گفت وشنید اور مصالحت سے سلجھانے کے لئے کہ دیاہے۔ بابری مسجد تنازعہ ایک لمبا سفر طئے کر چکا ہے اور اس نے ہندوستان کی تاریخ پر گہرے اور داغدار نقوش چھوڑے ہیں۔ بہت سے فسادات برپا ہوئے ہیں اور جان و مال کااتنا نقصان ہوا ہے جسکا اندازہ نہیں لگایا جا سکتا۔ اس مسئلے نے کسی پارٹی کو اوج ثریا پر پہونچا دیا اور حکومت کی پوری باغ ڈور اسکے ہاتھ میں دے دی تو کسی کوزمیں بوس کر دیا۔ سچ کچھ بھی ہو اور ثبوت کسی کے پاس بھی ہوں مگر حقیقت یہ ہے کہ ہمارے برادران وطن کو یہ باور کرا یا جا چکا ہے اور ہر و خاص وعام یہ سمجھتا ہے کہ رام کا جنم بابری مسجد کی جگہ پر ہی ہوا تھا۔



 اس مسئلے کی سنگینی کی وجہ سے آج پوری دنیا کی نگاہیں اس پر لگی ہوئی ہیں اور ہر ایک کو یہ احساس ہے کہ کسی بھی طرح کا غیر متوازن فیصلہ دنیا کی نظروں میں ہندوستان کی جمہوری امیج کوٹھیس پہونچا سکتا ہے۔ اور شاید یہی وجہ ہے کی سپریم کورٹ نے اسے پھر سے بات چیت اور مصالحت کے ذریعہ سلجھانے کے لئے کہا ہے۔ ایسی صورت میں سوال اٹھتا ہے کہ مسلمانوں کا رویہ کیا ہونا چاہئے؟ کیا انھیں سرے سے اپنے حق سے دست بردار ہو جانا چاہیے یا اسے اپنی ناک کا مسئلہ مان کر اپنے حق کے لئے اڑے رہنا چاہیے کہ سپریم کورٹ کا حتمی فیصلہ ہی قابل قبول ہوگا؟

ہمارے بعض علماء و دانشوروں نے اس سے پہلے بھی گفت و شنید سے اس مسئلے کو حل کرنے کی باتیں کہی ہیں اور اس مسئلے کے تصفیہ کے لئے الگ الگ فارمولے پیش کئے ہیں، مثال کے طور پر طبقہء علماء میں اپنی مخالف آراء کی وجہ سے مغبوض مولانا وحیدالدین خان نے بابری مسجد کی شہادت کے بعد ایک تین نکاتی فارمولہ پیش کیا تھا جسکا مقصد تھا کہ موجودہ بند گلی سے نکلنے کی طرف ایک واضح اور متعین آغاز کرنا تاکہ دوبارہ تعمیر و ترقی کی طرف ہم اپنا سفر جاری کر سکیں۔ اس فارمولے کا لب لباب یہ تھا کہ  ۱) مسلمان بابری مسجد کے بارے میں اپنا ایجیٹیشن مکمل طور پر ختم کریں۔  ۲) ہندو اپنے مندر مسجد کے آندولن کو آجودھیا میں ہی ہمیشہ کے لئے اسٹاپ کریں۔ ۳) گورمنٹ عبادت گاہوں کے تحفظ ایکٹ ۱۹۹۱ کو دستور ہند کا جزء بنا دے۔ مولانا کا یہ تین نکاتی فارمولہ اعتراف حقیقت کے اصول پر بنایا گیا تھا۔ اسی طرح مولانا سلمان حسینی ندوی نے ایک سال قبل اپنی ذاتی رائے پیش کر تے ہوئے بابری مسجد سے دست بردار ہونے اور اسکے بدلے ایک دوسری جگہ پر مسجد و یونیورسٹی بنانے کی بات کہی تھی۔ اسی طرح بعض دیگر دانشوروں نے بھی اپنے رایئں پیش کی ہیں۔
ناچیز کی رائے میں نہ تو مسلمانوں کو سرے سے اپنے حق سے دست بردار ہو جانا چاہیے اور نہ ہی اسے اپنی ناک کا مسئلہ مان کر اپنے حق کے لئے اڑے رہنا چاہیے کہ سپریم کورٹ کا حتمی فیصلہ ہی قابل قبول ہوگا کونکہ سب کو پتا ہے کہ ثبوت کس کے حق میں ہیں اور عدالت عظمی پر کس قسم کا فیصلہ دینے کا دبائو ہے بلکہ ایک درمیانی رہ اختیار کرنی چاہئے۔ اور ہمارے علماء و قائدین کو سر جوڑ کر بیٹھنا چاہئے اور اپنی دانشمندی کا ثبوت دیتے ہوئے مشروط طریقے سے اس مسئلے کو حل کرنے کی کوشش کرنی چاہئے جس سے نہ کہ صرف برادران وطن کی دلجوئی ہو بلکہ جو ہندوستان میں مسلمانوں کے روشن مستقبل کا ضامن ہو۔ راقم الحروف کی رائے میں بعض شرطیں یہ ہو سکتی ہیں۔
۱) پہلی شرط یہ کہ تمام ہندو تنظیمیں مسلمانوں کی دیگر عبادت گاہوں بشمول مساجد، مدارس، خانقاہیں، مزارات، مقبرے، قبرستان وغیرہ کے تعلق سے اپنے دعووں سے دست بردار ہو جائیں اور پھر کبھی کسی پر کسی طرح کا دعوہ پیش نہ کریں۔
۲) بابری مسجد کے ڈھانے والے ملزموں کو سزا د ی جائے تاکہ پھر اس طرح کا کوئی واقعہ وقوع پذیر نہ ہو۔
۳) بابری مسجد کے بعد ہونے والے فسادات بالخصوص ممبئی فسادات کے ملزمین پر از سر نو ے مقدمہ چلایا جائے اور انہیں سزا دی جائے۔
۴) ایک ایسا دستوری قانون بنایا جائے جو مسلمانوں کی تمام تاریخی جگہوں کی حفاظت کا ضامن ہو اور اس بات کی ذمہ داری لے کہ بابری مسجد جیسا کا کوئی حادثہ مستقبل میں نہ ہو۔
۵)ایودھیا میں ہی کسی دوسرے مقام پر کوئی زمین الاٹ کی جائے تاکہ وہاں پر اسی نام سے مسجد کی تعمیر کی جا سکے۔
بہر حال ہمارے اکابر علماء، دانشور حضرات اور قائدین اپنی سوجھ بوجھ اور دور اندیشی کو برووئے کار لاتے ہوئے ایسی شرطوں کا انتخاب کر سکتے ہیں جو ہندوستان میں مسلمانوں کے حقوق کی نگہبانی کریں۔ اس میں کوئی شک نہیں کہ یہ مسئلہ بہت پیچیدہ ہے مگر وطن عزیز میں مسلمانوں کی حالت زار اس مسئلے کو مزید طول دینے کی اجازت نہیں دیتی خاص طور سے اس صورت میں جبکہ برادران وطن کا انتہاپسند طبقہ مسلمانوں کے در پئے آزار ہے اور صرف اسی بنا پراپنی سیاست کی روٹیاں سینک رہا ہے، اور وہ نہیں چاہتا کہ اس مسئلے کا کوئی حل نکلے اور سپریم کورٹ کی پیش رفت کے بعد ان کے دھمکی بھرے بیانات اس طرف واضح اشارہ کر رہے ہیں۔
 یہ خوشی کی بات ہے کہ ہر طبقے نے سپریم کورٹ کی اس پیش رفت کا خیر مقدم کیا ہے۔ مسلم علماء و دانشوروں، اور سیاستدانوں کو اس موقع سے فائدہ اٹھانا چاہئے اور ایسی درمیانی راہ اختیار کرنی چاہئے جو ہندوستان میں مسلمانوں کو روشن مستقبل کی طرت رہنمائی کرے، اور ایسا قدم اٹھانا چاہئے جس سے مستقبل میں اس طرح کی کوئی دوسری مشکل پیش نہ آئے۔ اس مسئلے کو انا یا قومی شان کا مسئلہ بنانے کے بجائے سوجھ بوجھ سے حل کرنے کی کوشش کرنی چاہئے اور سپریم کورٹ کی اس پیش رفت کو ایک خو ش آئند اور مخلصانہ قدم سمجھتے ہوئے اس پر غور کرنا چاہئے کہ بحیثیت قوم اس مسئلے کو کورٹ کی نگرانی میں اور کورٹ کے باہر سلجھا کر کون سے فائدے اٹھا ئے جاسکتے ہیں اور اپنی اگلی نسل کو اس فساد سے کیسے باہر نکالا جا سکتا تاکہ وہ ترقی کی راہ پر گامزن ہو سکے۔


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مولانا مقبول احمد سالک صاحب سے چند ملاقاتیں اور باتیں

  مولانا مقبول احمد سالک صاحب سے چند ملاقاتیں اور باتیں تقریباً دو ہفتے قبل 12 ستمبر کو مولانا کی علالت کی خبر شوشل میڈیا کے ذریعے موصول ہوئ...