सूफी नाना हमारे खानदान के सबसे प्रसिद्ध आलिमे-दीन (धार्मिक गुरु) और इलाके के विख्यात व्यक्तियों में से एक थे। आप हमारे घराने के उन चन्द ममतामय बज़ुर्गों मे से थे जिनकी दुआएं और मुहब्बतें बचपन से हमारेे साथ रहीं। आप हमारे सगे नाना के मामूज़ाद भाई थे, और इसके साथ-साथ हमारे फूॅफू नाना यानी हमारी मां के फूपा के भाई भी थे। आप दानों भाइयों के घर एक दूसरे के साथ बिलकुल मिले हुए थे और उनके बीच स्थित दीवार में रसोई के पास एक छोटी सी दरवाजे सरीखी खिड़की लगी हुई थी, जो दोनों घरों के बीच सम्पर्क बनाने का काम करती थी।
बचपन में मां के साथ जब भी हम फूफू-नानी के यहां जाते तो हमारा पहला हमला इसी खिड़की पर होता था, क्योंकि इसको खोलने के बाद दोनों घरों के आंगन हमारी पहुंच में आ जाते थे और हमें खेलने के लिए एक विशाल मैदान मिल जाता था। इस खिड़की पर हमले की दूसरी वजह यह थी कि इसके खोलते ही हमारे स्वागत और सत्कार में दोगना इज़ाफा हो जाता था, क्योंकि दूसरी ओर सूफी नाना और नानी, अर्थात आपकी श्रीमती ढेरसारी दुआओं और प्रेम के साथ ढेरसारे शकर के बताशे, संतरे वाली टाॅफियां और खजूर खाने को देती थीं। खजूर की बात निकल आई तो एक बात और बताता चलूं कि उच्चकोटि की खजूरें पूरे कुनबे में सिर्फ आप ही के यहां खाने को मिलती थीं।
सूफी नाना के यहां हमारी ईदी बचपन से बंधी हुई थी, जो शुरू में दो रुपये थी और फिर हमारी आयु, समय, जमाने और मंहगाई के साथ-साथ इस में इज़ाफा होता चला गया और कभी भूले से भी ऐसा न हुआ कि हमें आपके यहां ईदी न मिली हो। हालांकि ईदी मिलने का यह मुबारक सिलसिला अब तो माता-पिता से भी लगभग खत्म हो चुका है तो दूसरे संबंधी व नातेदारों की बात ही क्या है? अभी इसी ईद में आपने मुझे और मेरे छोटे भाई को 50 रुपये बतौर ईदी इनायत किये। इस साल जब हम ईद के अगले दिन मामूल के मुताबिक ईद मिलने आपके यहां गये तो मालूम हुआ कि आप हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। ढेर सारी मुहब्बतें और दुआएं प्रदान करन के बाद नानी ने हमारी जेब में ईदी रखते हुए कहा कि नाना तुम्हीं लोगों का इन्तजार कर रहे थे, किसी आवश्यक काम से कस्बे जाना था उन्हें मगर सिर्फ इसलिए नहीं गये कि हमारे नाती हर साल की तरह आज भी आते होंगे, अब मैं उनसे मिलने के बाद ही जाऊंगा। सूफी नाना उन चंद लोगों में से थे जिन्होंने ईद मिलने की पुरानी परम्परा को आज भी गले से लगा रखा था, वरना अब तो अक्सर दरवाजे़ खाली या बंद मिलते हैं। उस दिन सूफी नाना से हाथ मिला कर जब हम बाहर निकले तो हमें ज़रा भी अहसास नहीं हुआ था कि आप बस चंद महीनों के महमान हैं।
मैंने जब से होश संभाला, ईदगाह में हमेशा आपको इमामत करते (नमाज़ पढाते) देखा। इमामत का यह वर्दान आपको, आपकी परहेजगारी, पवित्रता, लगन शिष्टाचार और प्रसिद्धि के कारण 70 की दहाई के अंत में प्राप्त हुआ था। इमामत की इस सेवा को आपने जीवन के अंत तक अंजाम दिया। ईद की नमाज़ के बाद आप से गले मिलने वालों का तांता सा लग जाता था और लोग बड़े उत्साह से आपसे गले मिलने के लिए प्रतिस्पर्धा करने लगे थे। हम ठहरे सुविधा पसंद, कहां इतनी मेहनत करते, इसलिए दो-चार लोगों से गले मिलकर चुपके से चाट की दुकान की तरफ निकल जाते, दिल को यह तसल्ली देते हुए कि कल तो आपके यहां जाना ही है, वहीं घर पर मिल लेंगे। हालांकि कई बार ऐसा होता कि ईदगाह के मेले से फारिग होने के बाद जब हम कब्रिस्तान में दाख़िल होते तो आप वहां से बाहर आते या अन्दर जाते हुए मिल जाते और बड़ी शफ़क़त से रास्ते में ही हमें गले लगा लेते। और इस प्रकार बगैर किसी महनत के उनसे मिलने का सौभाग्य हमें मिल जाता, जिसके लिए लोग ईद की नमाज के बाद मशक्कत करते नजर आते थे।
मैंने अपनी पुस्तक The Khans of Satanpurwa लिखते समय सूफी नाना का एक संक्षिप्त सा साक्षात्कार लिया था जिस में आपके जीवन से संबंधित बुनियादी जानकारियां एकत्र की थीं, उचित होगा कि उन बुनियादी जानकारियों का यहां उल्लेख कर दिया जाये ताकि यह लेख न केवल मेरे संस्मरण के तौर पर जाना जाये बल्कि सूफी नाना के ताल्लुक से दस्तावेजी हैसियत का माना जाये।
सूफी नाना का पूरा नाम मौलाना सूफी जा़मिन अली खां था और अपने इलाके में सूफी साहब के नाम से प्रसिद्ध थे। 2 फरवरी सन् 1940 में रायबरेली में स्थित सातनपुरवा के एक छोटे से गांव गढ़ी दिलावर में पैदा हुए। आपने आरम्भिक शिक्षा और उच्च शिक्षा सातनपुरवा के सरकारी स्कूल में प्राप्त की, जो सन् 1958 में पूर्ण हुई। इसके बाद आपने कुछ वर्ष गांव में निवास किया और फिर सन् 1965 में सुल्तानपुर स्थित सिन्दूरवा के निकट एक छोटे से गांव ‘छोटई का पुर्वा’ स्थानान्तरित हो गये, जहां आप जीविकोपार्जन के लिए गांव के बच्चों को पढ़ाने लगे और साथ ही अपनी शिक्षा भी जारी रखी। आप रोजाना सुबह बच्चों को पढ़ाने के बाद जगदीशपुर के मदरसे ‘सिराजुल उलूम लतीफिया’ में चले जाते, जहां उर्दू, फारसी और अरबी की शिक्षा ग्रहण करते।
शिक्षा व दीक्षा का यह सिलसिला लगभग दस साल अर्थात सन् 1975 तक चलता रहा। इसके पश्चात आपने फैज़ाबाद के एक कस्बे टांडा स्थित ‘दारुल उलूम मज़हरे हक़’ में प्रवेश ले लिया और ‘आलमियत व किरअत’ की शिक्षा हासिल करने के बाद सन् 1977 में वहां से फारिग़ हुए। दारुल उलूम मज़हरे हक़ से फारिग होने के बाद जगदीशपुर के मदरसे सिराजुल उलूम लतीफिया में बतौर उस्ताद आपकी नियुक्ति हो गई, जिसके बाद आपकी जिन्दगी को परिपक्वता मिली। और आप शिक्षा-दीक्षा में व्यस्त हो गये। सन् 1999 में अल्लाह तआला ने हज करने का सोभागय भी प्रदारन किया।
अपनी शैक्षिक व्यस्तता के बावजूद जनता से सम्पर्क व संबंध का जो सिलसिला आपने छोटई का पुर्वा में आरम्भ किया था उसको न केवल बरकरार रखा वरन आगे भी बढ़ाया और अपने दिलकश व प्रेणादायी भाषणों से शीघ्र ही अवाम मेें प्रसिद्ध हुए और न केवल आस-पास के इलाके बल्कि बिहार, उड़ीसा, गुजरात, छत्तीसगढ़ और मुम्बई से आपको भाषणों के लिए बुलावे आने लगे। सूफी नाना कमाल के वक्ता थे श्रोताओं को किस प्रकार सम्मोहित करना है, आपको खूब आता था। एक खास बात जो इलाके के दूसरे वक्ताओं से आपको श्रेष्ठ करती थी वह थी अपने वक्तव्यों में इलाकाई भाषा अर्थात अवधी का सुन्दर व सन्तुलित, धारा प्रवाह ऐसा प्रयोग कि हृदय को स्पर्श कर जाये और आम लोगों को आपकी बात समझ में आ जाये।
मदरसे में शिक्षा-दीक्षा की व्यस्तता, जनता में आपके वक्तव्यों की स्वीकार्यता और सफर की बढ़ती तादाद के बावजूद आपने अपने गांव की आवश्यकताओं को अनदेखा नहीं किया। अपने गांव में बच्चों को बुनियादी धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता को शिद्दत से महसूस करते हुए आपने कुछ दूसरे शिष्ट बुजुर्गाें के सहयोग से जिन में मौ0 जाफर, हाजी मौ0 यूसुफ, मुहम्मद अली मुंशी, कल्लन खां और मौलवी अब्दुलबारी वगैरा विशेष तौर से उल्लेखनीय हैं, गांव में लगभग 18 बिसवा ज़मीन हासिल की और इस पर ‘अशरफुल उलूम अहमदिया’ मदरसे की स्थापना की और एकमत से इसके अध्यक्ष नियुक्त हुए। और अभी पिछली दहाई तक इस पद पर नियुक्त रहे, मगर सन् 2007 में अवकाश प्राप्ति के बाद जब आपका स्वास्थ्य जवाब देने लगा तो सन् 2009 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
अपने खित्ते मे आपने जो दूसरा महत्वपूर्ण कार्य किया वह था ज़मींदाराना मिज़ाज की वजह से स्थापित होने वाले अवैध संबंधों को सही रुख देना। आप इस प्रकार के संबंध रखने वाले विभिन्न लोगों से मिले जिन में कई गण्मान्य लोग भी थे, उन्हें ऐसे रिश्तों को दाम्पत्य में परिवर्तित करने पर आमादा किया, जिस से समाज में अनैतिक संबधों पर कुछ लगाम लगी।
अभी दो दिन पूर्व यानी सोमवार के दिन दिनांक 16 सितम्बर 2019 को 80 वर्ष की आयु में आप इस नश्वर संसार से प्रस्थान कर गये और अपने सच्चे मालिक से जा मिले, अल्लाह तआला आपको स्वर्ग में उच्च स्थान प्रदान करे और साथ ही साथ आपके परिजनों को सब्र व शान्ति प्रदान करे। आमीन।
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